हर लमहा सजाने का शौक था मुझे
जिंदगी खुद ब खुद सवरती गई
पता ही ना चला
अपनो के जज्बात कुछ अपने से लगते थे मुझे
दिलो में उनके हुकूमत कब मेरी चलने लगी
पता ही ना चला
हर लमहा अपनो को देना मुनासिब लगता था मुझे
रिश्ता कोई भी क्यों ना हो, हम दोस्त कब बन गये
पता ही ना चला
उलझनें जिंदगी की कुछ यूँ मुख्तसर की मैने
खुशियों के पयाम कब मुखातिब हो चले
पता ही ना चला
अपने कदमों की हिफाज़त कुछ यूँ की मैने
जिंदगी मेरी कब यहाँ मुनव्वर हो चली
पता ही ना चला
Nice
ReplyDeleteNice lines
ReplyDeleteWah
ReplyDeleteNice lines
ReplyDeletebeautifully explained
ReplyDeleteAti sundar
ReplyDeletenice poetry
ReplyDeleteimpressive lines
ReplyDeleteamazing
ReplyDeleteDeep thoughts
ReplyDeleteAchha likha h
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