***************************** चाहिए क्या हमें, हम समझ ही नहीं पाते टूट जाते हैं रिश्ते, हम संभल ही नहीं पाते अहसास-ए-दरमियाँ तो तब जगता है जब एक पहिया गाड़ी का पलट चलता है पग पग जिंदगी भी गुजरती चली जाती है ख्वाइशें तो हकीकत को भी रौंदती चली जाती हैं गुजर जाती है उम्र जब, हम अहसास बुनने बैठते हैं फटे हुए कपड़ो की सिलाई हम आज करने बैठते हैं खुले दरवाज़ों में भी दस्तक न देते थे हम आज बेचैनियाँ हमारी दराज़ों से झांकती है महकाया ही नहीं ये दामन कभी हमने आज सिलवटों को पड़े जमाना हो गया हमें तो आदत हो गयी है गिर कर संभलने की पर चोट खाये हुए रिश्ते, आवाज नहीं करते कल हाथ पकड़ने में भी शर्म आती थी आज हथेलियां हमारी, तुम्हारा हिसाब मांगती हैं काश वक़्त रहते ही अहसास हो जाता शायद हर लम्हा कितना खास हो जाता ***************************************